• Sunday, 12 May 2024
Special Report:  विलुप्त हो गई गुरूजी के साथ चकचंदा मांगने की परंपरा, गांव-गांव पूजे जाते थे बुद्धि के देवता गणेश

Special Report: विलुप्त हो गई गुरूजी के साथ चकचंदा मांगने की परंपरा, गांव-गांव पूजे जाते थे बुद्धि के देवता गणेश

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अरुण साथी

कई भारतीय संस्कृति और परंपरा विलुप्त भी हो गई। पांच-सात दशक पहले तक ऐसी ही एक संस्कृति और परंपरा का चलन मगध क्षेत्र में गणेश उत्सव चतुर्थी के दिन से शुरू हो जाता था और एक पखवाड़े तक चलता था। इसे चकचंदा का नाम से लोग जानते है। हर गांव के सरकारी अथवा गुरु जी के पाठशाला में बुद्धि के देवता गणेश जी पूजे जाते थे। सरस्वती पूजा का आयोजन हाई स्कूल स्तर पर होती थी।

घर-घर घूम कर मांगते थे चकचंदा

भादो शुक्ल पक्ष चतुर्थी के दिन गांव के सभी स्कूल में गणेश की प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती थी। वही गुरुजी के साथ स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे चकचंदा के लिए गांव में घर-घर जाते थे। जहां गुरु जी को आदर और सम्मान से बैठाने के बाद कहीं अंग वस्त्र तो कहीं आनाज चंदा स्वरूप दिया जाता था।

बुजुर्गों को आज भी है याद

इसको लेकर बरबीघा के शेरपर गांव निवासी सत्तर वर्षीय विजय कुमार चांद कहते हैं कि अपने गांव में गुरु जी के साथ हुए चकचंदा मांगने के लिए जाते थे। हाथ में गुल्ली-डंडा लेकर उसे बजाना होता था। गुरु जी चारपाई पर बैठते थे। बच्चे चकचंदा गाते थे । अनाज अथवा वस्त्र इत्यादि अभिभावकों के द्वारा दिया जाता था।

अखियां लाल-पियर होलो रे बबुआ

65 वर्षीय समाजवादी नेता शिवकुमार कहते हैं कि वह पटना के बाढ़ अनुमंडल अंतर्गत बरूआने गांव में लगन गुरु जी के पिंडा (पाठशाला) पर पढ़ने के लिए जाते थे। गणेश चतुर्थी को चकचंदा मांगने की रस्म होती थी। इसके लिए एक छोटा और एक बड़ा, दो रंगीन डंडा हर बच्चे के हाथ में होता था। जिसे एक निश्चित धुन के साथ एक दूसरे से टकराकर बजाया जाता था। उसमें कपड़े का फीता भी लगा होता था और काफी खूबसूरत लगता था। गुरु जी के प्रति सम्मान की यह एक अनोखी परंपरा थी। गुरु जी बच्चों के साथ 15 दिनों तक घूमते थे। बच्चे चकचंदा गाते थे । उस समय मनोहर पोथी ही प्रमुख पुस्तक होती थी। चकचंदा गाने में अखियां लाल-पियर होलो रे बबुआ। कोठी पर पिटारा देखो इत्यादि गीत शामिल थे।

बाउआ रे बउआ लाल लाल झअुआ

वहीं खोजागाछी निवासी 70 वर्षीय आनंदी पांडे, गोरे सिंह बताते हैं कि वह भी अपने गुरु जी के साथ चकचंदा में जाते थे। भादो चौठ गणेश जी आए, डंडा खेल गुरुजी पठाए यह गाया जाता था। वहीं कवि अरविंद मानव कहते है कि उस समय हमलोग भी निकलते थे। बाउआ रे बउआ लाल लाल झअुआ चकचंदा गाते थे।
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वरिष्ठ पत्रकार अरुण साथी के ब्लॉक चौथा खंभा https://chouthaakhambha.blogspot.com/ से आलेख को  साभार प्रकाशित किया गया है।
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