
मेहुस की मां महेश्वरी मंदिर में अनोखी परंपरा, सवर्ण-दलित में होता है सांकेतिक युद्ध

मेहुस की मां महेश्वरी मंदिर में अनोखी परंपरा, सवर्ण-दलित में होता है सांकेतिक युद्ध
शेखपुरा।
मेहुस गांव का पौराणिक मां महेश्वरी मंदिर सामाजिक समरसता का अद्भुत प्रतीक बन गया है। यहां सदियों से चली आ रही परंपरा आज भी वैसे ही जीवंत है, जब ऊंची जाति और अनुसूचित जाति के लोग मिलकर देवी की पूजा करते हैं और खास अवसर पर राम-रावण युद्ध का आयोजन करते हैं।
ग्रामीणों के अनुसार मां महेश्वरी की प्रतिमा पाल वंशीय काल (7वीं शताब्दी) में स्थापित मानी जाती है। कहा जाता है कि मूल रूप से मां की पिंडी थी, जिसे बाद में काले पत्थर की प्रतिमा में स्थापित किया गया। मंदिर के पुजारी धन्नजय उपाध्याय बताते हैं कि उनके पूर्वजों को यह गांव दान में मिला था और तभी से मां महेश्वरी की आराधना की जाती रही है।
अनुसूचित जाति को मिलता है पहला प्रवेश
नवरात्र की नवमी को यहां विशेष अनुष्ठान होता है। परंपरा के मुताबिक, मंदिर में सबसे पहले प्रवेश का अधिकार अनुसूचित जाति के लोगों को दिया जाता है। वे पहले देवी के दरबार में दर्शन करते हैं, उसके बाद ही अन्य ऊंची जातियों को प्रवेश की अनुमति मिलती है। पुजारी मानते हैं कि यही परंपरा गांव में समरसता और भाईचारे की सबसे बड़ी मिसाल है।
राम-रावण युद्ध की अनोखी परंपरा
नवरात्र की नवमी को एक और विशेष आयोजन होता है। यहां गांव के अनुसूचित जाति के लोग राम सेना का और ऊंची जाति के लोग रावण सेना का रूप धारण करते हैं। दोनों पक्षों के बीच मंदिर के सामने सांकेतिक युद्ध होता है। परंपरा के मुताबिक, हर बार राम सेना ही विजय पाती है और उसके बाद अनुसूचित जाति के लोग मां महेश्वरी मंदिर में प्रवेश करते हैं।
ग्रामीण बताते हैं कि यह परंपरा कितनी पीढ़ियों से चली आ रही है, इसका अंदाजा किसी को नहीं है। सामाजिक कार्यकर्ता संजय सिंह कहते हैं, “हमारे दादा-परदादा भी यही कहते थे कि इस अनुष्ठान की शुरुआत कब हुई, किसी को नहीं पता। लेकिन पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे निभाया जा रहा है।”

मन्नतें होती हैं पूरी
गांव के श्रद्धालुओं का मानना है कि मां महेश्वरी हर भक्त की मन्नत पूरी करती हैं। रोजाना सैकड़ों लोग सुबह-शाम आरती में शामिल होते हैं और भक्ति भाव से अपनी इच्छाओं को देवी के चरणों में अर्पित करते हैं।
मेहुस का मां महेश्वरी मंदिर सिर्फ धार्मिक आस्था का ही नहीं बल्कि सामाजिक एकता और समरसता का भी संदेश देता है, जहां परंपरा में दलित और सवर्ण दोनों बराबरी से हिस्सा लेते हैं।




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