• Monday, 20 May 2024
डॉ श्री कृष्ण सिंह के निधन पर तिजौरी से निकले 24,500, नौकर के लिए यह लिखा

डॉ श्री कृष्ण सिंह के निधन पर तिजौरी से निकले 24,500, नौकर के लिए यह लिखा

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डॉ श्री कृष्ण सिंह के निधन पर तिजौरी से निकले 24,500, नौकर के लिए यह लिखा 

 

 

 

स्व राय साहब सिन्हा

(श्री बाबू के ग्रामीण एवम सेवानिवृत कारा अधीक्षक। आलेख एसकेआर कॉलेज की स्मारिका से साभार)

 

बिहार केसरी डॉ० श्रीकृष्ण सिंह का ज्योतिर्मय व्यक्तित्व, आत्म निर्भरता, त्याग, तपस्या, विद्वता, सद्विचार, अध्ययनप्रियता, प्रशासनिक कुशलता तथा हृदय विशालता से कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो प्रभावित नहीं होगा। श्रीबाबू को नजदीक से देखने और सुनने के कई अवसर मिले। मुजफ्फरपुर के कम्पनीबाग मैदान में, बरबीघा (माउर) तथा मुंगेर के श्रीकृष्ण सेवा सदन में उनसे रू-ब-रू होने का, आँखें डालकर बात करने का और आकाशवाणी से दर्जनों बार उनके तथ्यपूर्ण जोशीले भाषणों को सुनने के स्वर्ण अवसर मिले थे। उनका पारदर्शी व्यक्तित्व मुझे प्रभावित किए बगैर नहीं रहा । महापुरुषों के सभी गुणों से मंडित उनका उदात्त चरित्र सदियों तक प्रकाश की किरणें बिखेरता रहेगा, प्रेरणा का अजस्त्र स्रोत बना रहेगा और विकासशील बिहार सूबे को मार्गदर्शन भी देगा।

करीब आठ वर्षों तक जेल जीवन बिताने वाले, कई बार पुलिस की लाठियाँ खाने वाले इस बलिदानी पुरुष का जीवन सदा अनुकरणीय रहेगा।

 

डॉ० श्रीकृष्ण सिंह के ज्येष्ठ पुत्र शिवशंकर सिंह उस समय 10 वर्ष के थे। शिवशंकर सिंह अपनी माँ रामरुचि देवी के साथ श्री बाबू से मिलने भागलपुर जेल गए। पुत्र पर जब श्री बाबू की दृष्टि पड़ी और पत्नी की आँखों में आँसू देखा तो श्री बाबू का कोमल मन विचलित होने लगा और इन्होंने तपाक से अपनी पत्नी को एक दृष्टि से देखते हुए कह दिया-आप लोग जाएं। अपने पुत्र और पत्नी से मिलने के चार दिनों के बाद श्री बाबू हजारीबाग सेन्ट्रल जेल अपने सहयोगियों के साथ भेज दिए गए। वहाँ खाने-पीने की समस्या भागलपुर जेल से भी गम्भीर थी । 

 

 

केन्दु की पत्तियों को सुखाकर सब्जी बनाई जाती थी और कैदियों को परोसी जाती थी। इस सुखौते की दुर्गान्ध बड़ी तीव्र थी। हजारीबाग जेल के अधिकारियों का रुख भी बड़ा कठोर था । हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में अभी भी उनके नाम से स्मारक प्रकोष्ठ सुरक्षित रखा गया है।

 

श्री बाबू जब पाँच वर्ष के थे तब इनकी माता काल के गाल में समा गयी थी। पिता स्व० हरिहर सिंह के अन्य चार पुत्र भी थे। सर्वश्री देवकी नन्दन सिंह, रामकृष्ण सिंह, राधाकृष्ण सिंह और गोपी नन्दन सिंह । देवकी बाबू ने आई० ए० तक की परीक्षा पास की थी और मुंगेर के एक प्रसिद्ध मुख्तार थे, साथ ही ज्योतिष शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान भी । इन्हीं की देखरेख में श्री बाबू की शिक्षा-दीक्षा हुई थी। अन्य तीन भाइयों की पढ़ाई पर भी देवकी बाबू ने ही ध्यान दिया था। रामकृष्ण सिंह ने आई० ए० तक की पढ़ाई पूरी की, राधाकृष्ण सिंह ने बी० ए० में पढ़ रहे थे, कि क्षय रोग से आक्रांत होने के कारण इनकी मृत्यु हो गई।

 

श्री बाबू ने गांवों के स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की और उर्दू की शिक्षा लेने के बावजूद भी रामचरित मानस को कंठहार बनाया। लेकिन उनके व्यक्तित्व में धार्मिक संकीर्णता का लेशमात्र भी देखने को नहीं मिला ।

 

श्री बाबू के परम पूज्य शिक्षक थे श्री लक्ष्मीदास जी और इनके प्रिय सहपाठी थे देवी सिंह, बबुआ नारायण सिंह और लखी नारायण सिंह।

 

गाँव के स्कूल की पढ़ाई खत्म करके श्री बाबू मुंगेर चले गए और वहाँ अपने अग्रज देवकी बाबू के अभिभावकत्व में जिला स्कूल में दाखिल हो गए। श्री बाबू जब मैट्रिक के विद्यार्थी थे तभी उन्होंने मुंगेर

के कष्टहारिणी घाट पर गंगा जी में प्रवेश करके शपथ ली कि वह जब तक भारत माता को ब्रितानी हुकूमत से मुक्त नहीं करेंगे, तब तक चैन नहीं लेंगे। उस समय श्री बाबू के एक हाथ में गीता थी और दूसरे में कृपाण । 

 

1906 ई० में श्रीकृष्ण सिंह मुंगेर जिला स्कूल के छात्र के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में इंट्रेंस की परीक्षा पास की और वजीफा भी हासिल की। बाद में पटना कॉलेज में इनका प्रवेश हुआ।

 

श्री बाबू पटना कॉलेज के मिन्टो छात्रावास में रहा करते थे। एक बार सम्राट पंचम जार्ज का आगमन पटना में हुआ। सम्राट को नाव पर चढ़ाकर गंगा के तटवर्ती इलाकों का दृश्यावलोकन कराया जा रहा था। सारा नदी तट दर्शकों से ठसाठस भरा हुआ था। यहाँ तक कि मिन्टो छात्रावास भी खाली हो गया था और सभी छात्रावासी पंचम जार्ज का चेहरा देखना चाहते थे। पर श्रीकृष्ण सिंह अपने कमरे से बाहर नहीं निकले। सम्राट के शरीर पर आँखें न पड़ जाएं, इस कारण उन्होंने अपनी कोठरी की खिड़कियाँ तक बन्द कर ली थीं।

 

 

 

1909 में इंटरमीडियेट की परीक्षा में श्री बाबू प्रथम श्रेणी में सफल हुए। ज्ञातव्य है कि उन दिनों पटना विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं हुई थी जो कि 1917 में हुई। इतिहास में एम० ए० करने के लिए श्री बाबू पटना कॉलेज में दाखिल हुए। लेकिन इन्हें द्वितीय श्रेणी ही मिली। इनकी नियुक्ति बी० एन० कॉलेज में इतिहास 1 के प्राध्यापक के रूप में हुई थी लेकिन इनके अग्रज देवकी बाबू इन्हें वकील के रूप में देखना चाहते थे। इस कारण 1915 में इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के बी० एल० की परीक्षा पास की और अपने कॉलेज जीवन का अध्याय पूरा किया।

 

 

1915 ई० में श्री बाबू ने मुंगेर जिला में अपनी वकालत शुरू कर दी। एक वर्ष बाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद 1916 में पटना हाईकोर्ट की स्थापना होने पर पटना में वकालत करने लगे थे। इसके पूर्व वे कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करते थे। श्री बाबू की उज्ज्वल प्रतिभा, वाक्पटुता और वैदुष्य की सर्वत्रा चर्चा होने लगी। श्री बाबू ने कुछ ही वर्षों में मुंगेर जिले के वकालत दुनिया में अपना एक खास स्थान बना लिया था। 1919 ई० में चेचक जैसी जानलेवा बीमारी से आक्रांत होने के कारण श्री बाबू ने एम० एल० की परीक्षा नहीं दी। 1917 ई० में लोकमान्य तिलक और श्रीमती एनीबेसेन्ट द्वारा चलाए जा रहे अखिल भारतीय होमरूल आन्दोलन के मंत्री भी बनाए गए। लोकमान्य तिलक  ही ऐसे नेता थे जिन्होंने सर्वप्रथम कहा था। - स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। "फ्रीडम इज आवर वर्थ राईट।" 

 

मुंगेर में वकालत पेशा में रहते हुए श्री बाबू ने गोगरी थाना में किसानों का एक विराट् सम्मेलन बुलाया था। इस अवसर पर श्री बाबू की सिंहगर्जना कभी भुलाई नहीं जा सकती। श्री बाबू के व्यक्तित्व पर लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के व्यक्तित्व की अमिट छाप थी। 1917 ई० में जब महात्मा गाँधी चम्पारण आए तो श्री बाबू ने उनके कामों में हाथ बँटाने की पूरी कोशिश की किन्तु अपने अनुज की बीमारी के कारण, जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी, वह महात्मा गांधी का साथ नहीं दे सके।

 

श्री बाबू के जीवन में सबसे अधिक सदमे के दिन वह थे जब 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जालियाँवाला बाग में जनरल डायर ने एक शांतिपूर्ण सभा पर बिना चेतावनी दिए हुए निर्दोष व्यक्तियों पर गोलियाँ चलवाई थी। गोली चलाने वाले सैनिकों में 100 भारतीय सिपाही तथा 50 अंग्रेज सिपाही थे। इस हत्याकांड में 1650 चक्र गोलियाँ चली थी, जिसमें 379 भारतीय मरे थे और 1137 घायल हुए।  इस हत्याकांड के विरोध में 17-18 अगस्त को  बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी की बैठक हुई। इस बैठक में श्री बाबू ने भावाविष्ट होकर रोना शुरू कर दिया।

 

श्री बाबू ने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी वकालत को लात मार दी और असहयोग आन्दोलन की धधकती अग्नि ज्वाला में कूद पड़े। श्री बाबू ने कलकत्ता कांग्रेस के कार्यक्रमों को लोकप्रिय बनाने के लिए, उसे जिले के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए गाँवों का दौरा किया। शाह जुबैर के साथ मिलकर दर्जनों सभाएँ की । सत्याग्रह के लिए स्वयंसेवकों का जत्था तैयार कराने लगे।

 

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1920 के नागपुरी अधिवेशन से लौटने के बाद श्रीकृष्ण सिंह असहयोग आंदोलन में पूरी तरह रम गए थे। राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना भी की थी।

 

1921 ई० में खड़गपुर में हुए बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन में श्री बाबू का सिंहगर्जन बिहारवासियों को सुनने को मिला। उसी सिंहनाद को सुनने के बाद जनता ने उन्हें बिहार केसरी की स्नेह-सिक्त उपाधि दी जो उनके नाम के साथ जुड़कर उनका पर्याय बन गई।

 

लोकमान्य तिलक की पुण्य तिथि 1 अगस्त 1921 को विदेशी वस्त्र बहिष्कार के रूप में मानायी गई। पूरे बिहार में उस दिन जुलूस निकाले गये और सभाएँ की गई तथा विदेशी वस्त्रों को जलाया गया। इसी क्रम में शाह मुहम्मद जुबैर की अध्यक्षता में एक वृहत सभा का आयोजन हुआ जिसमें श्री बाबू ने ओजपूर्ण भाषण दिया और मुंगेरवासियों को आजादी की लड़ाई में आहूति देने को कृतसंकल्पित किया।

 

श्री बाबू आधुनिक बिहार के निर्माताओं में प्रमुख थे। 1946 से 1961 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे श्री कृष्ण सिंह का जीवन पारदर्शी था। जब श्री बाबू को 24 मार्च 1937 को बिहार में मंत्रिमंडल बनाने के लिए गवर्नर ने बुलाया तो इन्होंने उनसे इस बात का आश्वासन चाहा कि संवैधानिक कार्यकलाप में उनका हस्तक्षेप वांछनीय नहीं होगा। गवर्नर ने जब उनकी यह बात पूरी तरह मानने से इन्कार किया तो श्री बाबू ने कहा कि राज्य को स्वशासन मिलना ही चाहिए । कांग्रेस पार्टी ने 20 जुलाई 1937 को सरकार बना ली और श्री बाबू मुख्यमंत्री बनाए गए।

 

किन्तु श्री बाबू के मुख्यमंत्री के समय 1939 में यह निर्णय लिया गया कि हम पूरी आजादी चाहते हैं। पुनः श्री बाबू 1946 में मुख्यमंत्री बने। दो बार 1952 और 1957 में विधान-सभा का चुनाव लड़कर आए और दोनों बार नेता चुने गए तथा मुख्यमंत्री बने ।

 

कवि जनार्दन राय ने श्रीकृष्ण जयन्ती के अवसर पर श्री बाबू के प्रति अपना श्रद्धांजलि निम्नांकित पंक्तियों

 

में व्यक्त की थी-

 

"पुस्तक प्रेम तुम्हारा निश्चय ही अतुलित है

 

कहना उसको "मजनू" कभी नहीं अनुचित है 

 

विद्याव्यसनी कहना तुमको ही समुचित है

 

हे वाणी के वरद् पुन्न श्रीकृष्ण तुम्हारा बन्दन

 

क्षण-क्षण हे प्रतिमा के पुंज तुम्हारा रात-रात वन्दन।"

 

 

श्री बाबू जब कभी पटना से बाहर जाते थे तो डाक्टरों की सलाह अवश्य ले लिया करते थे। दिसम्बर 1960 के आखिर में श्री बाबू कलकत्ता में जोरों से बीमार पड़ गए। वे श्री शान्ति प्रसाद जैन के यहाँ ठहरे हुए थे। उनकी हालत गम्भीर थी। डॉ० टी० एन० बनर्जी, डॉ० श्रीनिवास और डॉ० यू० एन० शाही उनकी सेवा तथा देखरेख सारी रात जगकर करते रहे। सुबह जब उनकी स्थिति में सुधार हुआ और वे चेतन हुए तो उन्होंने कुछ शब्द दुहराए-डॉ० साहब, आपने बहुत कष्ट उठाया है, सारी रात जगे रहे। आप सोयें और जायें।

 

श्री बाबू गलत पैरवी और बेबुनियाद तर्क से दूर भागते थे। काम करने में उनके ढंग निराले थे। वे युवा - और निर्दोष व्यक्तियों की बातें अधिक सुना करते थे। - वे यह भी नहीं पसंद करते थे कि कांग्रेस पार्टी का कोई - भी व्यक्ति सरकार के दैनिक कार्यकलापों में दखलंदाजी दे ।

 

श्री बाबू का अंतिम कार्यक्रम 27 दिसम्बर 1960 को पटना विश्वविद्यालय के व्हीलर सीनेट हॉल में राजनीति शास्त्र के विद्वानों को संबोधित करना था । - उनके भाषण से श्रोताओं में संतोष जिज्ञासा की शान्ति हुई थी। बाद में कलकत्ता पहुंचने पर वह सहसा अस्वस्थ हो गए। उन्हें दिल का दौरा पड़ा और मधुमेह से जर्जर शरीर में गुर्दे की खराबी आ गई। 23 जनवरी 1961 को श्री बाबू को हवाई जहाज से पटना लाया गया और चार नम्बर बंगले पर रखा गया। उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी। शायद भारतमाता के इस सपूत को खुदा का कोई फरिश्ता स्वर्गलोक की शोभा बढ़ाने के लिए ले जाने को तैयार था। 

 

श्री बाबू ने अपने द्वितीय पुत्र बन्दी शंकर बाबू को इशारे से कहा कि उनकी बीमारी पर कलकत्ता में जो खर्च हुआ उसे वह चुका दें। उन्होंने यह भी निर्देश दे रखा था कि उनकी चिता जब जलायी जाय तो उसमें किसी प्रकार का राजकीय सम्मान प्रदर्शित न हो और श्राद्ध का पूरा खर्च बन्दी शंकर ही करें। 31 जनवरी, 1961 का वह दिन जिसने बिहार केसरी को हमसे छीन लिया और उनके वे अंतिम शब्द जो बन्दी शंकर जी को संबोधित थे- 'देखो, तुम्हारी माँ मुझे बुला रही है।"

 

बिहार के गौरव श्री बाबू का पटनावासियों ने नम आँखों से विदाई दी। मृत्यु के बारहवें दिन उनके द्वारा संजोयी गयी एक छोटी-सी तिजोरी बिहार के राज्यपाल के सामने खोली गयी । कुल 24,500 रुपये इस तिजोरी से निकले, जिसमें कागज पर लिखा था- "20,000/- रुपये बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी के लिए, 3,000 रुपए पुनीती साहब की बेटी की शादी के लिए और 1000 रुपये महेश बाबू की सबसे छोटी बेटी उषा की शादी के लिए और 500 रुपये उनके परम विश्वासी नौकर स्वर्धा के लिए।" •

 

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