• Thursday, 19 September 2024
''कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र, सैंया घायल किया रे तूने मोरा ज़िगर '' वाली कुम कुम के गांव से

''कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र, सैंया घायल किया रे तूने मोरा ज़िगर '' वाली कुम कुम के गांव से

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पवन कुमार- वरिष्ठ पत्रकार  
 

कुमकुम के गांव में 

 
गांव के मुहाने पर कोलतार की तमीज़दार सड़क ख़त्म हो गई है। यहां से सीमेंट की पगली सड़क शुरू हो रही है। सामने बाएं हाथ पर लगभग 10 फीट ऊंची चहारदीवारी है, धुनी रमाए हुए। गांव के मनबढु बच्चों ने इसे तोड़कर एक चोर दरवाज़ा तैयार कर दिया है। 
 
ये हुसैनाबाद है, मुस्लिमबहुल गांव। यहां के नवाब मंज़ूर हसन खान साहब के घर 1934 ईसवी, 22 अप्रैल की बादलभरी सुबह मशहूर अभिनेत्री कुमकुम का जन्म हुआ था। घरवालों ने ज़ैबुन्निसा नाम दिया। 
 
यूं तो कुमकुम की ढेर सारी फ़िल्में देखने का मौका मिला। लेकिन इनके बारे में विस्तार से जाना जाय ये ज़ेहन में कभी नहीं आया। पढ़ते-पढ़ते एक दिन कुमकुम का संदर्भ सामने आ गया। 
जैसे जैसे जानना चाहा और जानने की इच्छा होती रही। सोचा क्यों नहीं कुमकुम के गांव ही चला जाय। कुछ तो नया जानने को मिलेगा। सोचता रहा, अगली दफा लक्खीसराय गया तो कुमकुम के गांव हुसैनाबाद ज़रूर जाऊंगा। यही इच्छा मुझे कुमकुम के गांव तक खींच लायी। 
 
गाना सुना है न, ''कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र, सैंया घायल किया रे तूने मोरा ज़िगर ''। वही वाली कुम कुम। 
 
कई दिनों से घना कोहरा लक्खीसराय-शेखपुरा-नवादा इलाके को लपेटे हुए है, भिनसार होते ही गरगोट के कोहरा पकड़ लेता है। किसान खुश हैं-चलो फसलों को नमी हासिल होगी।
 

आखिरकार गांव से चलने की हिम्मत कर ही डाली। 

 
सुबह के 9 बज चुके हैं। कोहरे से कब तक डरते। आखिरकार गांव से चलने की हिम्मत कर ही डाली। अपने गांव पतनेर से शेखपुरा, टाल-टाल जाएंगे तो 16 किलोमीटर से ज्यादा नहीं है। सड़क थोड़ी ख़राब ज़रूर है लेकिन इस रास्ते से जाने पर 12 किलोमीटर की बचत होगी। 
रास्ता दिख नहीं रहा, किसी तरह टटकोरते हुए आगे बढ़े रहे हैं। दो तीन किलोमीटर चलने पर कोहरा फटने लगा है। सड़क से सटे खेतों में धान डेंगाने, ओसाने का काम चल रहा है। दोनों तरफ़ खेतों में मसूर, गेहूं और सरसों के पौधे लहालोट हैं। जुताई का एक टुकड़ा भी उघाड़ा नही दिख रहा। फ़सलों की जवानी देख लगता है झिल्लीझाड़ फ़सल होगी। 
 
पास ही प्याज़ के खेतों में महिलाएं धारापाती बैठी हैं, निकाई कर रही हैं, निकाई बोलते हैं जब फसलों के बीच से घासों को अलग किया जाता है। बहुत मेहनत का बारीक काम है ये। इसलिए इस काम में बच्चे नहीं लगाए जाते। 
 
हमारे साथ एक स्थानीय पत्रकार हैं, अरूण कुमार। अरूण जी दैनिक जागरण के ब्युरो चीफ हैं, शेखपूरा में। हमने उनका दामन थाम लिया है। अरूण जी को सगरे-जवार लोग जानते है, इधर। अपने पुराने मित्र हैं।
 
शेखपुरा बड़े दिन बाद आया हूं। ये शहर मेरा जाना पहचाना है। बचपन की यादें यहां बार बार खींच ले आती हैं। शेखपुरा होते हुए ही हम बरबीघा जाया करते थे। मैंने बरबीघा एस.के.आर कॉलेज से ही इंटर किया है। 
 
शेखपुरा शहर की चिल्ल-पों बर्दाश्त करके किउल-गया रेलवे लाइन पटरी पार कर लिया है। एक किलोमीटर चला होऊंगा। सामने सड़क पर हरे रंग का बोर्ड लगा है- अरियरी प्रखंड में आपका स्वागत है। मील का पत्थर बता रहा है-हुसैनाबाद, दो किलोमीटर और। 
 

दोपहर के दो बजे हैं। चोरदरवाज़े से अंदर घुसते हैं हम।

 
सामने गहरा तालाब है, आधा भरा। तालाब का पूर्वी छोर, तालाब की सीढ़ियों पर बैठकर कुछ महिलाएं कपड़े साफ कर रही है। तालाब के किनारे दस बीस बकरियां घास चर रही हैं। आसपास रंग-बिरंगे आवारा कुत्ते घूम रहे हैं, लगभग ठिठुरते हुए।
 
तालाब की एक कनखी पर सुनहले पीले रंग से रंगा हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर, स्वास्थ्य उपकेंद्र हुसेनाबाद, है। बड़े अक्षरों में लिखा है, आयुष्मान भारत। इसमें दो कमरे हैं, देखकर लगता है, हफ्तों से कोई स्टाफ़ यहां नहीं आया है। ये नीतीश कुमार का बिहार है। 
 
इस सेंटर के आगे पीछे बच्चे लुकवाचोरी खेल रहे हैं। जब हेल्थ सेंटर आबाद नहीं रहेगा तो गांव के बच्चे अपने हिसाब से इसका इस्तेमाल करेंगे ही। 
 
गांव में घुसते ही पहली नज़र में मालूम पड़ता है, इस जगह का इतिहास कैसा बुलंद रहा होगा। सामने सफेद रंग का गुंबज़दार मकान है, कहते हैं ये नवाबों के वक्त मजलिस की जगह हुआ करती थी। यहां बैठकर लोग आपसी झगड़े फरिया लिया करते थे। 
 
उसके साथ ही लाल इंटों से बनी मस्जिद है, शान से अपने इतिहास का बोध कराती। मस्जिद के चारों तरफ, दीवारों और छतों पर झाड़ियों ने कब्ज़ा कर रखा है। ये खंडहरी मस्जिद शेखपुरा प्रशासन द्वारा विरासत वाली भवनों में शुमार है। प्रशासन क्या करेगा, वो तो यहां खुद ही खंडहर बना हुआ है। 
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दिल नहीं मान रहा कि ऐसी जगह की पैदाइश कुमकुम कैसे उस ऊंचाई तक पहुंच गयी। बिना किसी फिल्म बैकग्राउंड के। 
 
कुमकुम के बारे में अब याद आया ? शोभा, चंदा और न जाने कितने कितने नाम रहे फिल्मों में इनके। 
 
'तेरा जलवा जिसने देखा वो तेरा हो गया' वाली कुमकुम। अब पहचाना ? अब शायद पहचान जाएं। '
 
'ज़ुल्मी हमारे संवरिया हो राम, कैसे गुजरेगी हमरी उमरिया हो राम'', ''दगा दगा वय वय वय, दगा दगा वय वय''। जी, वही वाली कुमकुम। कुमकुम के खाते में 100 से ज्यादा फिल्में करने का रिकॉर्ड है। 
 
 
 
कुमकुम को सबसे पहले फिल्मों में रोल मिला शोहराब मोदी की 'मिर्ज़ा गालिब' में। जानी मानी फिल्मी हस्ती नौशाद ने कुमकुम को इस फिल्म में रोल की सिफारिश की थी। 
 
फिल्मों की नाड़ी-नब्ज़ जाननेवाले कहते हैं- कुमकुम (Kumkum) की खोज नामी गिरामी निर्देशक गुरू दत्त ने की थी। गुरूदत्त फिल्म ‘आर पार’ बना रहे थे, ‘कभी आर कभी पार, लागा तीरे नजर’ गाने के लिए उन्हें कोई स्थापित अभिनेत्री नहीं मिली, सबने मना कर दिया। नतीजा गुरूदत्त ने इस गाने को कुमकुम पर फिल्माया और ये गाना सुपरहिट हो गया। और इसके साथ ही हिट हो गयी कुमकुम । 
 

मजलिस के पास ही तीन बच्चे गलबहियां डाले हुए हमारी तरफ देख रहे हैं।

 
इन्हीं में से एक को को हमने कहा- नवाब साहब के घर ले चलो। वो आगे आगे, हम सब पीछे पीछे। पुराने राजशाही लेकिन टुटे हुए मकानों के बीच से निकल कर गांव की गलियों में दाखिल हो गए। बाएं दाएं करते हुए एक जगह जाकर हम सब रुक गए। 
 
बच्चे ने इशारा किया-यही नवाब साहब का घर है। एक बड़ा सा कैंपस है। उसके अंदर पुराने ढर्रे पर बना एक मकान है, जीर्ण शीर्ण अवस्था में। देखने से ऐसा मानो इसे ढहने की प्रतीक्षा हो। सफेदी किसी ज़माने में कराई गयी होगी। कार्बन डेटिंग वाले ही पता कर सकते हैं। 
 
कैंपस में ढेर सारे पौधे, फूल पत्तियां हैं। बीचोबीच एक कुआं है। कुआं भी उतना ही पुराना लगता है जितना पुराना मकान। कुएं के बीचोबीच एक शहतीर रखा है। कुएं के बगल में चार केले के छोटे-छोटे पौधे लगे हुए हैं, मरने की कगार पर। आधे सूख गए हैं। एक आम का पेड़ भी है, लेकिन पेड़ से आभा गायब है।
 
ओसारे पर एक तरफ दशकों पुरानी कुर्सी पड़ी है , इस तरह मानो कुर्सी रूठी सी हो। दूसरी ओर कोने में एक बड़ा सा संदूक पड़ा है, नवाबियत के न जाने कितने रहस्य बंद होंगे इसमें। उसके उपर से एक अलगनी जा रही है। अलगनी के ऊपर काले रंग का मफलर टंगा है। उसके साथ ही मटमैले रंग का तौलिया भी लटक रहा है। 
 
हमलोग अंदर दाखिल होते हैं, कुमकुम की तीसरी पीढ़ी के रिश्तेदार यहां रहते हैं। तीन भाई हैं। सैयद मूसी रज़ा, सैयद असद रज़ा और सैयद क़ायम रज़ा। किसी ने शादी नहीं की है। असद रज़ा साहब बीमार हैं, लेटे हुए हैं। हमने अपना परिचय दिया। ये भी कहा कि मैं तो आपके बगल का रहनेवाला हूं। बेहद खुश हुए। 
 
दीवार पर उनके पुरखों की तसवीरें लगी हैं। बाबा, परबाबा, लकड़ बाबा। उन्ही में से एक हैं उनके परदादा, बिल्कुल सैनिक के ड्रेस में। रज़ा साहब कहते हैं कि इन्हें 1911 में जॉर्ज पंचम के दरबार में बुलाया गया था। 
 
कुमकुम के बारे में बातों का सिलसिला शुरू हुआ। बहुत प्यार और अदब से कुमकुम का नाम ले रहे हैं- किस्सा सुनाया, ‘’कुमकुम कई बार इस घर में आई हैं, आखिरी दफा 2010 में आई थीं, बेहद खुश होती थीं यहां आकर’’। अपनी जन्मभूमि देखकर कौन खुश नहीं होगा, जो नहीं होता मतलब उसे अभी और बोध होना है
 
‘’एक बार तो कुमकुम बिना किसी को सूचना दिए आ गयी थी। फिर जब पुलिस को पता चला तो वो सुरक्षा देने पहुंच गए थे’’ रज़ा साहब ?
 
मुसी रज़ा साहब दूसरे कमरे में उठकर जाते हैं। वहां से दो-तीन किताबें उठाकर लाते हैं। एक तो वंशावली की किताब है, उर्दू में। मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर। 
 
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दूसरी किताब हुसैनाबाद इस्टेट पर है, ये एक पीएचडी थीसिस है, अंग्रेज़ी में लिखी गयी है तो समझ में आ रही है। लेकिन विषय थोड़ा अलग है। उन्होनें कहा कि कुमकुम के पिता मंज़ूर हसन खान एक बार काशी के राजा के निमंत्रण पर बनारस गए थे जहां उनकी मुलाकात बेगम खुर्शीद बानो नाम की तवायफ से हुई। नवाब मंज़ूर हसन खान ने बेगम बानो को न्योता देकर हुसैनाबाद बुला लिया और उससे शादी कर ली। उसी बेगम बानो की कोख से कुमकुम की पैदाइश हुई। जब कुमकुम ढ़ाई साल की थी तो उनके पिताजी बीमार हो गए। बीमारी के इलाज के लिए वो कोलकाता चले गए, वहीं लंबी बीमारी से उनकी मौत हो गयी। उसके बाद कुमकुम की मां उसे लेकर बनारस पहुंच गयी। यहां वक्त के थपेड़ों से लड़ते हुए उनकी मां लखनऊ चली गयीं। वहां कुमकुम को कत्थक की ट्रेनिंग दिलाई जाने माने गुरू शंभु महाराज से। बातचीत में रज़ा साहब ने बताया कि कुमकुम के पूर्वज ईरान में राज करते थे। वहां का राज पाट छोड़कर वो अयोध्या आकर बस गए। ये बात जब मुहम्मद बिन तुलगक को पता चली तो उन्होने फिर से उन्हें राज्य के एक हिस्से की ज़िम्मेदारी दे दी। उसके बाद की पीढ़ियों में एक मंजन शहीद नाम के उत्तराधिकारी हुए जिन्हें हुमायूं ने अपना सिपहसालार नियुक्त किया। मंजन शहीद को बिहार में मरसाढ़ के पास सैनिक छावनी का मुखिया बनाकर भेज दिया गया। बाद की पीढ़ियों ने इसे हुसैनाबाद का नाम दिया, तब से ये नवाबी हुसैनाबाद के नाम से ही मशहूर है। कुमकुम के पूर्वज ने कोलकाता से शेखपुरा रेललाइन का निर्माण कराया था। सन 1897 ई. में नबाब बहादुर अली खां ने कोलकाता से लेकर गया तक रेल लाइन का कार्य शुरू किया था। उसी दौरान इनकी हालत बिगडऩे लगी और कोलकाता में इलाज के लिए भर्ती कराया गया। जहां इलाज के दौरान इनकी मौत हो गयी। उस समय रेल लाइन बिछ चुकी थी, लेकिन रेल परिचालन शुरू नहीं हुआ। कोलकाता में पदस्थापित तत्कालीन गवर्नर जनरल के आदेश पर स्पेशल ट्रेन सैलून से उनकी शव को हुसैनाबाद लाया गया था। कहा जाता है- उस वक्त नबाब साहब की रियासत चलती थी और दरबार लगता था। नालंदा, राजगीर, पटना, गया और मुंगेर जैसे जिलों के लोग फ़रियाद लेकर आते थे। कभी इस गांव का जलवा जलाल रहा होगा, उसी हुसैनाबाद गांव में आज गुरबत लोट रही है, वीरानगी पसरी है। 1975 में कुमकुम की शादी लखनऊ निवासी सज्जाद अकबर खान के साथ हो गई और वह अपने पति के साथ सउदी अरब चली गई। कुमकुम 1995 में लौटकर भारत आई और अपने परिवार के साथ मुंबई आकर रहने लगी। मुंबई में 28 जुलाई 2020 को उनकी मौत हो गयी। लेकिन हम जैसों के लिए घर पिछवाड़े वाली कुमकुम की अदाकारी, नृत्य, गीत और संगीत अब भी किसी नॉस्टेल्जिया से कम नहीं है। शाम के पांच बज गए हैं। नवाब साहब भाइयों से विदा लेने का वक्त आ गया है। यहां से पांच सात मिनट चलेंगे तो गांव से बाहर सड़क पर आ जाएंगे। सूरज तो पहले ही गायब है। बची खुची रोशनी की तासीर से समझ आ रहा है कि शाम हो रही है। थोड़ी शाम होगी तो और गहरा जाएगी। कहते हैं शाम गहरी हो तो और हसीन हो जाती है। यहां से 18 किलोमीटर चलेंगे तो बरबीघा पहुंच जाएंगे। बरबीघा पहुंचते-पहुंचते शाम वास्तव में हसीन हो गयी है। एक मित्र के घर पर जाकर डेरा डाल देते हैं। चारों तरफ कुर्सियां लगीं हैं। चाय की चुस्कियां चल रही हैं। अलाव जल रहा है। कुमकुम की फिल्में और किस्सों के बीच शाम और गहरा रही है। अलाव के सुनहले प्रकाश के बीच कुमकुम की अलग-अलग अलग तस्वीरें मेरी कल्पना में तिरोहित हो रही है। ( इस यात्रा चित्र में कहानी काफी हद तक कुमकुम के रिश्तेदारों के साथ निजी बातचीत के आधार पर तैयार की गयी है। ) (लेखक पत्रकारिता जगत के प्रख्यात हस्ताक्षरों में शुमार हैं। यह लखीसराय जिले के पतनेर गांव निवासी हैं। इनकी लेखनी के जादूगरी से सभी वाकिफ हैं।)

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