जयंती विशेष: स्वतंत्रता सेनानी लाला बाबू ने क्यों कहा, देश भक्ति बेचने की चीज नहीं है
जयंती विशेष: स्वतंत्रता सेनानी लाला बाबू ने क्यों कहा, देश भक्ति बेचने की चीज नहीं है
अरुण साथी, वरिष्ठ पत्रकार के फेसबुक वॉल से साभार
आज स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी, शिक्षाविद और समाजसेवी श्रीकृष्ण मोहन प्यारे सिंह उर्फ लाला बाबू की जयंती है। उन्होंने अपने त्याग, सादगी और देशप्रेम से एक ऐसी मिसाल कायम की, जिसे आज भी याद किया जाता है। लाला बाबू ने स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन यह कहते हुए ठुकरा दी थी, "देशभक्ति बेचने की चीज नहीं है। मैंने जेल में यंत्रणाएं इसलिए नहीं सही कि इसका दाम वसूलूं।"
महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी लाला बाबू ने गांधीवाद को अपने जीवन में उतारकर सादगी और जनसेवा को अपना धर्म बना लिया। वे निस्वार्थ भाव से अनगिनत छात्रों को पढ़ाई के लिए प्रतिमाह आर्थिक सहायता देते थे। जब किसी ने उन्हें ट्रस्ट बनाकर इस कार्य को संगठित करने की सलाह दी, तो उन्होंने कहा, "मैं उपकार की दुकान खोलकर यश बटोरना नहीं चाहता। मुझे अपने तरीके से जीने दीजिए।"
शैक्षणिक और सामाजिक योगदान
लाला बाबू ने बरबीघा का श्रीकृष्ण रामरूची कॉलेज समेत पूरे बिहार में कई विद्यालयों और अस्पतालों की स्थापना की। उनके दिल में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के प्रति विशेष लगाव था। वे कहते थे, "मेरे मरने के बाद मेरी लाश फेंक दी जाए, मुझे दुख नहीं होगा। लेकिन मेरी ये प्यारी संस्थाएं अगर लड़खड़ाएंगी, तो मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।"
उन्होंने अपनी संपत्ति अपने भाई को दान कर दी और राज्यसभा सदस्य रहते हुए भी सादगी का जीवन जिया। उनके अंतिम दिनों की मुफलिसी के किस्से सुनकर आज भी लोगों की आंखें भर आती हैं।
"बरबीघा का दधीचि" कहे जाते है
लाला बाबू को "बरबीघा का दधीचि" की उपाधि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने दी थी। दिनकर जी ने लिखा कि लाला बाबू में अभूतपूर्व त्याग और धैर्य था। वे कहते थे, "मैं चाहता हूं कि मेरी छाती फट जाए और लोग मेरे दर्द को देख सकें।" दिनकर जी ने लिखा है कि बिहार केसरी उनके परम आराध्य थे किंतु उन्होंने जब लाला बाबू को अकारण कष्ट पहुंचाया तब भी लाला बाबू का आनन मलिन नहीं हुआ।
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स्वतंत्रता आंदोलन में पांच बार गए जेल
लाला बाबू का जन्म 4 जनवरी 1901 को बिहार के शेखपुरा जिले के तेउस गांव में हुआ। 1911 में बीएन कॉलेजिएट हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद बीएन कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन गांधी जी के आह्वान पर पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। 1930 में 5 महीने, 1932 में 6 महीने, 1941 में 4 महीने, 1942 में 6 महीने और 1943 में 1 साल 5 महीने तक जेल में रहे।
बरबीघा के पहले विधायक
लाला बाबू 1952-1957 तक बरबीघा के पहले विधायक रहे। 1957-1958 में राज्यसभा के सदस्य और 1958 से 12 वर्षों तक बिहार विधान परिषद के सदस्य रहे। उन्होंने बिहार और भागलपुर विश्वविद्यालयों के सीनेट और सिंडिकेट में भी अपनी सेवाएं दीं।
मृत्यु और विरासत
लाला बाबू का निधन 9 फरवरी 1978 को हुआ। उनका जीवन त्याग और सेवा का प्रतीक था। उनकी जयंती पर पूरा देश उनके योगदान को यादकर श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
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