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शेरशाह ने खुदवाया शेखपुरा का मशहूर दालकुआँ। शेखपुरा की परत दर परत ऐतिहासिक जानकारी प्रसिद्ध साहित्यकार जाबिर हुसेन की जुबानी..

शेरशाह ने खुदवाया शेखपुरा का मशहूर दालकुआँ। शेखपुरा की परत दर परत ऐतिहासिक जानकारी प्रसिद्ध साहित्यकार जाबिर हुसेन की जुबानी..

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जबीर हुसेन

चाक पर रेत : दो सौ सड़सठ

मेरे हिस्से का पहाड़ – ग्यारह

शेख़पुरा शहर के दरम्यानी हिस्से में अवस्थित ‘स्वयंवर’ पहाड़ की औसत ऊंचाई सैलानियों को डराती नहीं, फिर भी न जाने क्यों वहां इन दिनों धक्के देने वाली भीड़ कम ही दिखाई देती है।

पुरानी किताबों में इसे पेड़ों से आच्छादित पहाड़ की जगह ‘सख़्त पत्थरों वाला टीला’ कहा गया है।

लेकिन यह इस पहाड़ का मुकम्मल सच नहीं है।

इतिहास की कुछ गुमनाम गुफाएं गवाह हैं कि किसी ज़माने में यहां कोई प्रतापी राजा हुआ करता था, जिसने इस पहाड़ पर अपनी सुंदर कन्या का स्वयंवर रचा था। पर सुंदर कन्या ने तमाम दावेदारों की अभिलाषा को ठुकराते हुए वरमाला एक शर्मीले चरवाहे के गले में डाल दी थी, जो राजा और उसके अमलदारों के आगे ख़ौफ़ से कांप उठा था।

कहते हैं, यह घटना तो इतिहास की चंद अंधी गुफाओं में दफ़न हो गई, मगर पहाड़ का नाम हमेशा-हमेशा के लिए इस ‘स्वयंवर’ से जुड़ गया।

इसी पहाड़ की तराई में अवस्थित दो जुड़वां बस्तियों (शेखपुरा-हुसैनाबाद) में से एक में आज से डेढ़ सौ साल क़बल उर्दू-फ़ारसी के बाकमाल शायर और प्रखर गद्यकार बहार हुसैनाबादी (1864-1929) का जन्म हुआ। पूरा ख़ानदान अदब और तहज़ीब की ज़िंदा मिसाल के तौर पर, पूरे मुल्क, बल्कि इस से बाहर भी, इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता था। अदब की तारीख़ें और शायर-अदीबों के तज़किरे इस ख़ानदान की दास्तानों से भरे-पड़े हैं। ख़ान बहादुर, नवाब बहादुर जैसे ख़िताबों से अपनी शोभा बढ़ाने वाली कई-कई शख्सियतें इन जुड़वां बस्तियों में एक-साथ मौजूद रहीं। बादशाह औरंगज़ेब, बादशाह हुमायुं, शेरशाह और मीर क़ासिम जैसे तारीख़ के कुछ मशहूर चेहरे भी इस ख़ानदान की बहादुरी और वफ़ादारी के क़िस्सों से बाख़बर थे।

लेकिन इन किस्सों से बिल्कुल अलग, इस ख़ानदान की तारीख़ का एक रौशन अध्याय लगभग आठ सौ वर्षों की महान सूफ़ी परंपरा से भी जुड़ा रहा है। इस सूफ़ी परंपरा की कुछ निशानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

इनमें एक हैं, मख़दूब शाह शम्सुद्दीन फरियादरस, जिनका जन्म 1270 ई. में रूम में हुआ और जो अपने वालिद के इंतेक़ाल के बाद मिस्र, सीरिया, इराक़, इरान होते हुए 1278 ई. में हिन्दुस्तान आकर फै़ज़ाबाद में बस गए।

उस समय हिन्दुस्तान के बादशाह ग़यासुद्दीन बलबन हुआ करते थे।

शम्सुद्दीन फ़रियादरस ने शहर अयोध्या में एक ख़ानक़ाह स्थापित कर इलाक़े-भर में इल्म की रौशनी बिखेरी। सन 1388 में, 118 साल की उम्र में, उनकी मौत हुई। उनका मज़ार अयोध्या के उस समय के एक मशहूर तालाब के किनारे एक बुलंद टीले पर बना, जो आज भी मौजूद है।

इस परंपरा की दूसरी निशानी शाह मंजन शहीद थे, जो शेरशाह के ज़माने में अवध से बिहार आए। जैसा कि उनके नाम से ज़ाहिर है, बिहार आने के रास्ते में कुछ अज्ञात लुटेरों के साथ हुई जंग में उनकी शहादत हुई। परिवार में पत्नी बीबी बतूल उर्फ फूल और दो कमसिन बच्चे, शेख मुस्तफ़ा और शेख़ जुनैद थे। बेवा मां अपने बच्चों के साथ शेखपुरा आ गईं।

बाद में, शेख जुनैद की शादी बीबी रुकन से हुई, जो मख़दूम शाह शुएब के बेटे शाह बहाउद्दीन की बेटी थीं।

इल्म की दुनिया शाह मंजन शहीद को रूहानी तालीमात का ख़ज़ाना मानती है।

सूफ़ी परंपरा की एक और बेहद रौशन कड़ी शाह मुल्ला मुहम्मद नसीर थे, जो दरअसल शाह मंजन शहीद की नस्ल से थे। वो मख़दूम शाह शुएब के नवासे भी हुए। एक विद्वान लेखक के तौर पर सारी दुनिया उनका लोहा मानती है। बिहार के सूफ़ियों के हालात पर उनकी किताब ‘इल्मुल हक़ीक़त’ को एक सनद का दर्जा हासिल है। उनकी किताबें दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं।

सन् 1727 में शाह मुल्ला मुहम्मद नसीर का इंतेक़ाल हुआ।

उन्हें तब के इज़ीमाबाद शहर (अब पटना) में मुहल्ला बाग़ पातो में दफ़न किया गया।

इसी सिलसिले के एक रौशन चिराग़ थे, शाह मुहम्मद हाशिम बहार हुसैनाबादी, जिनका जन्म 1864 ई. में हुसैनाबाद बस्ती में हुआ।

13 अक्तूबर, 2018 को उनके जन्म के 154 वर्ष पूरे हो जाएंगे।

स्वयंवर’ पहाड़ की तराई में, उनकी मौत के लगभग 85 वर्ष बाद, उनका मज़ार अतीत की गुमनामी से उभरा है, और उनकी याद में एक ‘आस्ताने’ का निर्माण हुआ है। इतना ही नहीं, उनकी साहित्यिक कृतियों के सुरुचिपूर्ण संकलन और संपादन का काम भी पूरा कर लिया गया है। छह जिल्दों में उनकी रचनाएं उर्दू मरकज़ अज़ीमाबाद के सौजन्य से प्रकाशित हो चुकी हैं। उनका उर्दू-फ़ारसी दीवान भी प्रकाशनाधीन है।

यहां सिर्फ़ एक पुस्तक ‘सकरात’ का उल्लेख करना ज़रूरी है। यह दरअसल बहार हुसैनाबादी की अपनी लिखी जीवनी है। लगभग 750 पृष्ठों की मूल पांडुलिपि मुद्रित होकर तस्वीरों सहित 450 पृष्ठों में आई है।

कहने को यह उनकी जीवनी है, परंतु इसमें पूरे तौर पर 19वीं सदी से लेकर 20 वीं सदी के शुरूआती दो दशकों का समाज अपनी ताक़त और कमज़ोरियों के साथ उभरता दिखाई देता है। जमीनदारों की जीवन-शैली, उनके पतनशील व्यवहार, उनके द्वन्द्व, उनकी आपसी रंजिशें, तालीम के प्रति उनकी बेहिसी, गोया ज़िंदगी के सारे पहलू, जो बहार साहब की नज़रों से गुज़रे, इस किताब में उनका क़िस्सा लिखा है।

बहार साहब चाहते तो अपनी जीवनी में सूफ़ी परंपरा की उन महान शख्सियतों के हवाले दे सकते थे, जिनका ज़िक्र मैंने इस आलेख के शुरू में किया है। लेकिन आत्म-स्तुति उनके स्वभाव को छू नहीं गई थी, इसलिए उन्होंने खुद को अपने ऊपर की दो-तीन पीढ़ियों के उल्लेख-मात्र तक ही समेट कर रखा। किताब के आख़िरी हिस्से में जो वंशावली है वो दरअसल संपादक की अपनी दरियाफ़्त और मेहनत है।

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पिछले कुछ दिनों से एक टी वी विज्ञापन में मशहूर ऐक्टर शाहरुख ख़ान अपने ख़ास अंदाज़ में कहते नज़र आते हैं: दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं – विनर्स और लूज़र्स – यानी जीतने वाले और हारने वाले। शाहरुख़ इस छोटे-से वाक्य के आगे भी कुछ कहते हैं, पर वो यहां बहुत प्रासंगिक नहीं।

जीत-हार की इस तल्ख़ सच्चाई के बीच शेरशाह कहां ठहरते हैं!

वही शेरशाह जिन्होंने देश के किनारों को जोड़ने वाली सड़क बनाई, सड़कों पर मुसाफिरों को छांव देने वाले घने पेड़ लगाए, और थके क़दमों को आराम देने वाली सराय बनाई। ज़मीन और राजस्व की बंदोबस्ती के लिए ठोस व्यवस्था की। तकलीफ़ और दर्द में डूबी आबादी को शासकीय संरक्षण दिया, उनके आंसू पोछे।

उस शेरशाह को आप क्या नाम देंगे – विनर या लूज़र?

वो शेरशाह, जिसने लड़ाइयां जीतीं और हारीं।

यानी जो ‘विनर’ भी रहा, ‘लूज़र’ भी!

कहते हैं, एक बार वो बिहार से बंगाल की तरफ़ जाते हुए थोड़े समय के लिए शेखपुरा के घने जंगलों और पहाड़ी श्रृंखला से गुज़रा था। तब उसने पहाड़ का सीना चीर कर रास्ता बनाया था, और उसकी तलहटी में मीठे पानी का एक कुंआ खुदवाया था।

आज भी ये कुंआ आबाद है। आज भी शेरशाह का नाम इस कुएं से जुड़ा है। आम लोग इसे शेखपुरा का ऐतिहासिक ‘दाल कुआं’ भी कहते हैं। लोक-कथाओं के अनुसार, इसे ‘दाल-कुआं’ इसलिए भी कहते हैं कि इसके पानी से दाल कुछ पल में ही गल जाती है।

गिरिंडा पहाड़ की तलहटी में, दो पूजा-स्थलों के बीच, 10-12 फीट का रास्ता आपको इस ऐतिहासिक कुएं तक पहुंचा देगा।

आस्था और भक्ति के महान पर्व ‘छठ’ के अवसर पर यहां तिल रखने की जगह नहीं होती। शहर-भर से हज़ारों महिलाएं, हर साल, पानी के छोटे-बड़े बरतन लिए इस कुएं पर आती हैं। इस कुएं के पानी से ही वो खरना-लोहंडा का प्रसाद बनाती हैं। इसी कुएं के पानी से उनकी आस्था का यह पवित्र अनुष्ठान संपन्न होता है।

कब से चल रही है यह परंपरा, किसी को पता नहीं। इलाके के निवासियों, कारोबारियों, यहां तक कि पूजा-स्थलों के समर्पित पुजारियों को भी मालूम नहीं कि ‘दाल कुएं’ के पानी से ‘छठ’ का प्रसाद तैयार करने की प्रथा कब, किस शासन और समाज की बनाई व्यवस्था के अधीन आरंभ हुई।

इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले कुछ सहृदय पाठक ज़रूर बताते हैं कि 1540 ई. के आसपास शेखपुरा होकर बंगाल जाते वक्त पहाड़ काटकर रास्ता बनाने वाले शेरशाह ने यहां तलहटी में यह कुआं खुदवाया था। खुद शेरशाह ने भी इस कुएं का मीठा पानी पिया था, और अपने अमलदारों को इसकी देखभाल करने की हिदायत दी थी।

तब से लेकर आज तक यह कुआं आबाद है। आज इसके इतिहास में आस्था और विश्वास की कुछ पवित्र कड़ियां भी जुड़ गई हैं!

मेरे पुरखों की बस्ती, शेखपुरा, की फ़िज़ा एकता के जिस डोर से बंधी है, उसे समझने के लिए उन पथरीले रास्तों से गुज़रना ज़रूरी है, जहां आस्था के खूबसूरत फूल खिलते हैं।

5 जून, 2018
मो.-9431602575

आलेख जबीर हुसेन से फेसबुक वॉल से साभार। (उनकी अनुमति से)

विकिपीडिया से जाने कौन हैं जाबिर हुसेन

जाबिर हुसैन का जन्म सन् १९४५ में गाँव नौनहीं राजगिर, जिला नालंदा, बिहार में हुआ। आप अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य के प्राध्यापक रहे। सक्रिय राजनीति में भाग लेते हुए १९७७ में मुंगेर से बिहार विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए और मंत्री बने। वर्ष १९९५ से बिहार विधान परिषद के सभापति हैं। जाबिर हुसैन हिंदी, उर्दू तथा अंग्रेजी (तीनों भाषाओं में समान अधिकार के साथ लेखन करते रहे हैं। उनकी हिंदी रचनाओं में- डोला बीबी का मजार, अतीत का चेहरा, लोगां, एक नदी रेत भरी प्रमुख हैं। अपने लंबे राजनैतिक-सामाजिक जीवन के अनुभवों में उपस्थित आम आदमी के संघर्षों को उन्होंने अपने साहित्य में प्रकट किया है। संघर्षरत आम आदमी और विशिष्ट व्यक्तित्वों पर लिखी गई उनकी डायरियाँ चर्चित-प्रशंसित हुई हैं। जाबिर हुसैन ने डायरी विधा में एक अभिनव प्रयोग किया है जो अपनी प्रस्तुति, शैली और शिल्प में नवीन है।

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