''कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र, सैंया घायल किया रे तूने मोरा ज़िगर '' वाली कुम कुम के गांव से
कुमकुम के गांव में
आखिरकार गांव से चलने की हिम्मत कर ही डाली।
दोपहर के दो बजे हैं। चोरदरवाज़े से अंदर घुसते हैं हम।
मजलिस के पास ही तीन बच्चे गलबहियां डाले हुए हमारी तरफ देख रहे हैं।
दूसरी किताब हुसैनाबाद इस्टेट पर है, ये एक पीएचडी थीसिस है, अंग्रेज़ी में लिखी गयी है तो समझ में आ रही है। लेकिन विषय थोड़ा अलग है। उन्होनें कहा कि कुमकुम के पिता मंज़ूर हसन खान एक बार काशी के राजा के निमंत्रण पर बनारस गए थे जहां उनकी मुलाकात बेगम खुर्शीद बानो नाम की तवायफ से हुई। नवाब मंज़ूर हसन खान ने बेगम बानो को न्योता देकर हुसैनाबाद बुला लिया और उससे शादी कर ली। उसी बेगम बानो की कोख से कुमकुम की पैदाइश हुई। जब कुमकुम ढ़ाई साल की थी तो उनके पिताजी बीमार हो गए। बीमारी के इलाज के लिए वो कोलकाता चले गए, वहीं लंबी बीमारी से उनकी मौत हो गयी। उसके बाद कुमकुम की मां उसे लेकर बनारस पहुंच गयी। यहां वक्त के थपेड़ों से लड़ते हुए उनकी मां लखनऊ चली गयीं। वहां कुमकुम को कत्थक की ट्रेनिंग दिलाई जाने माने गुरू शंभु महाराज से। बातचीत में रज़ा साहब ने बताया कि कुमकुम के पूर्वज ईरान में राज करते थे। वहां का राज पाट छोड़कर वो अयोध्या आकर बस गए। ये बात जब मुहम्मद बिन तुलगक को पता चली तो उन्होने फिर से उन्हें राज्य के एक हिस्से की ज़िम्मेदारी दे दी। उसके बाद की पीढ़ियों में एक मंजन शहीद नाम के उत्तराधिकारी हुए जिन्हें हुमायूं ने अपना सिपहसालार नियुक्त किया। मंजन शहीद को बिहार में मरसाढ़ के पास सैनिक छावनी का मुखिया बनाकर भेज दिया गया। बाद की पीढ़ियों ने इसे हुसैनाबाद का नाम दिया, तब से ये नवाबी हुसैनाबाद के नाम से ही मशहूर है। कुमकुम के पूर्वज ने कोलकाता से शेखपुरा रेललाइन का निर्माण कराया था। सन 1897 ई. में नबाब बहादुर अली खां ने कोलकाता से लेकर गया तक रेल लाइन का कार्य शुरू किया था। उसी दौरान इनकी हालत बिगडऩे लगी और कोलकाता में इलाज के लिए भर्ती कराया गया। जहां इलाज के दौरान इनकी मौत हो गयी। उस समय रेल लाइन बिछ चुकी थी, लेकिन रेल परिचालन शुरू नहीं हुआ। कोलकाता में पदस्थापित तत्कालीन गवर्नर जनरल के आदेश पर स्पेशल ट्रेन सैलून से उनकी शव को हुसैनाबाद लाया गया था। कहा जाता है- उस वक्त नबाब साहब की रियासत चलती थी और दरबार लगता था। नालंदा, राजगीर, पटना, गया और मुंगेर जैसे जिलों के लोग फ़रियाद लेकर आते थे। कभी इस गांव का जलवा जलाल रहा होगा, उसी हुसैनाबाद गांव में आज गुरबत लोट रही है, वीरानगी पसरी है। 1975 में कुमकुम की शादी लखनऊ निवासी सज्जाद अकबर खान के साथ हो गई और वह अपने पति के साथ सउदी अरब चली गई। कुमकुम 1995 में लौटकर भारत आई और अपने परिवार के साथ मुंबई आकर रहने लगी। मुंबई में 28 जुलाई 2020 को उनकी मौत हो गयी। लेकिन हम जैसों के लिए घर पिछवाड़े वाली कुमकुम की अदाकारी, नृत्य, गीत और संगीत अब भी किसी नॉस्टेल्जिया से कम नहीं है। शाम के पांच बज गए हैं। नवाब साहब भाइयों से विदा लेने का वक्त आ गया है। यहां से पांच सात मिनट चलेंगे तो गांव से बाहर सड़क पर आ जाएंगे। सूरज तो पहले ही गायब है। बची खुची रोशनी की तासीर से समझ आ रहा है कि शाम हो रही है। थोड़ी शाम होगी तो और गहरा जाएगी। कहते हैं शाम गहरी हो तो और हसीन हो जाती है। यहां से 18 किलोमीटर चलेंगे तो बरबीघा पहुंच जाएंगे। बरबीघा पहुंचते-पहुंचते शाम वास्तव में हसीन हो गयी है। एक मित्र के घर पर जाकर डेरा डाल देते हैं। चारों तरफ कुर्सियां लगीं हैं। चाय की चुस्कियां चल रही हैं। अलाव जल रहा है। कुमकुम की फिल्में और किस्सों के बीच शाम और गहरा रही है। अलाव के सुनहले प्रकाश के बीच कुमकुम की अलग-अलग अलग तस्वीरें मेरी कल्पना में तिरोहित हो रही है। ( इस यात्रा चित्र में कहानी काफी हद तक कुमकुम के रिश्तेदारों के साथ निजी बातचीत के आधार पर तैयार की गयी है। ) (लेखक पत्रकारिता जगत के प्रख्यात हस्ताक्षरों में शुमार हैं। यह लखीसराय जिले के पतनेर गांव निवासी हैं। इनकी लेखनी के जादूगरी से सभी वाकिफ हैं।)
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