जेल आरोपियों को अपराधी बनाने की पाठशाला है, पप्पू यादव की 'जेल' और ...
जेल आरोपियों को अपराधी बनाने की पाठशाला है, पप्पू यादव की 'जेल' और
वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन शर्मा के फेसबुक से साभार
जेल आरोपियों को अपराधी बनाने की पाठशाला है। आप यह भी कह सकते हैं कि हमारी जेलें सुधार गृह नहीं कसाईखाना हैं। पप्पू यादव की 'जेल' को पढ़ते हुए जेल का जो दृश्य सामने आता है, जेलों में कैदियों की जो स्थिति है, उससे लगता है कि व्यवहार में जेलों को कसाईखाना ही माना जा रहा है। यहां मामूली आरोपों में आया बंदी कुख्यात अपराधी बनने का प्रशिक्षण प्राप्त कर जाता है।
पिछले वर्षों के दौरान पप्पू यादव ने बार बार यह साबित किया है कई आपराधिक मामलों को झेलते हुए भी उनके भीतर मानवीय संवेदना भरी हुई। चाहे अपनी सियासत को आगे बढ़ाने के लिए समाज सेवा के महत्ति उदाहरणों को पेश करना हो। या फिर गरीब गुरबो के लिए अस्पताल में नंबर लगाने से लेकर बाढ़ सुखाड़ में पीड़ितों को सहयोग देना हो। पप्पू यादव ने बार-बार यह साबित किया है सबसे उनकी मानवीय संवेदना कुछ अलग किस्म की है। जैसे उनकी 'जेल' किताब में कैदियों के साथ बड़ती जाने वाली अमानवीयता को सरल शब्दों में बयान करती है। कैसे कोई आरोपी बड़ा अपराधी बनने की राह जेल से पकड़ता है यह पप्पू यादव की जेल में है।
राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने जेल जाने के अपने संस्मरणों को एक किताब का रूप दिया है। जेल शीर्षक से प्रकाशित उनकी यह किताब भारतीय जेलों की दुर्दशा को बड़े ही आसान शब्दों में समझाती हैं। जेलों में प्रशासनिक जाहिलपन, बंदियों संग अमानवीय व्यवहार, क्रूरता की कहानियां, गंदगी, बीमारी सहित हर अव्यवस्था को समझने के लिए पप्पू यादव ने बड़ी बारीकी से सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला है। जेल में भूख से बिलबिलाते कैदी, भूख मिटाने के लिए यौन उत्पीड़न झेलने को मजबूर कैदी, भूखे मरने के खौफ में हर दिन जीता कैदी। खाने से पखाने जाने तक की सिर्फ चुनौती। बाकी क्या ही कहा जाए।
कायदे से कहा जाए तो पप्पू की यह किताब जेल सुधार की दिशा में एक मानक बन सकती है। हमारे देश में जेलों को कैसे सुधार गृह के रूप में परिणित किया जाए इसके लिए जेल में बयां दर्द को महसूस करने की जरूरत है।
साथ ही पप्पू यादव ने इस किताब के माध्यम से यह भी दर्शाया हमारी व्यवस्था में कितनी खामियां हैं। आम तौर पर 'नेता' ऐसा साहस नहीं दिखाते! पप्पू की यह किताब उनके उसी साहस को दिखाती है कि आलोचना से ही सुधार की उम्मीद जगती है। जेल में सुविधाओं का भोग करने के लिए नहीं रखा जाता लेकिन जीवन रक्षा के लिए जरूरी बुनियादी चीजों का अभाव तो नहीं ही होना चाहिए। यदि कोई एक पक्ष जेलों को सुधार गृह न भी माने तो भी यह मानना ही पड़ेगा कि जेलों में ऐसे विचाराधीन कैदी भी रहते हैं जिन पर अभी दोषसिद्ध नहीं हुआ है। ऐसे में जेल किसी अपराधी बनाने की पाठशाला ना बने यह तो देखना ही होगा।
प्रियदर्शन बेंगलुरु में पत्रकारिता करने के बाद संप्रति पटना में प्रतिष्ठित पोर्टल में पत्रकारिता कर रहे हैं। ये पटना जिला के मोकामा निवासी हैं।
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