धर्मगुरु दलाई लामा का कुत्ता डूका की निलामी की आलोचना
धर्मगुरु दलाई लामा का कुत्ता डूका की निलामी की आलोचना
शिवकुमार, समाजवादी नेता
बेहद कड़वा और एकमात्र आखिरी सच
पिछले दिनों दलाई लामा के कुत्ते "डूका" की नीलामी हुई। कुत्ता बारह वर्ष तक तिब्बत के इस सर्वोच्च धर्मगुरु की सुरक्षा में कार्यरत था। उनकी सुरक्षा दस्ते का सबसे विश्वासपात्र जीव था डूका। रिटायरमेंट के बाद उसे नीलाम कर दिया गया। नीलामी के समय उसका मूल्य पाँच सौ रुपये रखा गया था, जिसपर पन्द्रह सौ रुपये दे कर किसी व्यक्ति ने उसे खरीद लिया। इस प्रकरण में ध्यान देने लायक बात यह भी है कि बारह वर्ष पूर्व इस कुत्ते को लगभग सवा लाख रुपये में क्रय किया गया था।
यूँ तो यह सामान्य सी घटना है, पर ध्यान से देखें तो जीवन के अनेक भरम दूर हो जाएंगे। सवा लाख में खरीदे गए कुत्ते का मूल्य एक दिन पाँच सौ रुपये हो जाएगा, इस बात को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते हम, पर अंततः होता यही है। वह तो कुत्ता सरकारी था इसलिये उतना मूल्य भी मिल गया, वरना यूँ ही भूखों मरने के लिए छोड़ दिया जाता।
हम जब प्रभावशाली होते हैं तो सोचते भी नहीं कि कभी दिन ढलेंगे भी! लगता है जैसे संसार सदैव मुट्ठी में ही रहेगा। पर संसार किसी की मुट्ठी में रहता नहीं।
इस घटना को एक दूसरी दृष्टि से भी देख सकते हैं। क्या दलाई लामा जैसा प्रभावशाली व्यक्ति उस कुत्ते को दो चार वर्ष यूँ ही नहीं रख सकता था? कितना खा लेता वह? जहाँ सुरक्षा दस्ते के अन्य कुत्ते खाते वहीं वह भी खा लेता। उसने जवानी भर इनकी चौकीदारी की थी, उसके बुढ़ापे के दो चार वर्ष बिना काम किये भी कट जाने चाहिये थे। पर नहीं! जिस युग में लोग बूढ़े माँ-बाप को छोड़ देते हैं, उस युग में कुत्ते की कौन सोचे...
हम स्वीकार नहीं कर पाते
हम स्वीकार नहीं कर पाते, पर हर वस्तु की एक एक्सपायरी डेट होती है। उसके बाद उसका मूल्य समाप्त हो ही जाता है। वस्तु ही नहीं, रिश्तों की भी एक्सपायरी डेट होती है। यदि हमेशा भइया या बाबू कहने वाला व्यक्ति किसी एक छोटी सी बात पर चिढ़ कर गाली देने लगे, तो असहज न होइये। बस इतना ही समझिये कि सम्बन्धों की आयु पूरी हो गयी...
इस घटना पर एक दृष्टि और हो सकती है। सबकी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं, किसी के लिए सम्बन्ध महत्वपूर्ण होते हैं, भावनाएं महत्वपूर्ण होती हैं, और किसी के लिए केवल भौतिक उपलब्धियां। यह हमारे ही हाथ में होता है कि हम अपने सम्बन्धों को सँजो कर रखते हैं या उसे 'डूका' की तरह नीलाम कर देते हैं।
अब मैं अपनी ओर से कहूँ तो 'डूका' को यूँ नीलाम नहीं होना चाहिये था। एक लंबे समय तक जीवन का हिस्सा रहे व्यक्ति को यूँ नहीं छोड़ा जाना चाहिये। एक क्षण को भी जिससे स्नेह रहा हो, जिससे लगाव रहा हो उसे किसी डूका की तरह सरे आम नीलाम करने में हमारे हाथ न काँपें तो नैतिकता बघारना व्यर्थ है। बाकी हमारी बात ही अंतिम बात थोड़ी है...
लेखक समाजवादी नेता एवं विचारक है। बरबीघा, शेखपुरा, बिहार के निवासी है।
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