छठ विशेष: सर..सर.छठ में छुट्टी दे दीजिए.सर. बस चार दिन में अपना गांव से वापस लौट आयेंगे
‘सर..सर.छुट्टी दे दीजिए.सर. बस चार दिन में आपना गांव से वापस लौट आयेंगे. माई इस बार छठ कर रही है, मामी भी, छोटकी चाची भी. सब लोग. कलकत्ता से बड़का भईया भी आ रहे हैं. सर. हम भी जायेंगे.सर. टिकट भी कटा लिये हैं.. सर सब कुछ तो आपका ही दिया हुआ है.यह बुशर्ट ..यह खून में मिला नमक..मेरा रोम- रोम आपका कर्जदार है… पलायनवादी राज्य से हैं न पेट भरने अपने घर से मीलों दूर..आपकी फैक्टरी में..पर सर.छठ पूजा हमारे रूह में बसता है..अब हम आपको कैसे बताएं..छठ क्या है.हमारे लिए. हम नहीं बता सकते और न आप समझ सकते हैं.’
‘दालान’ वाले हमारे मित्र रंजन ऋतुराज ने अपने फेसबुक पर इस काल्पनिक से लगने वाले छठ संवाद को लिखा है. क्या पता कितने लोगों ने ऐसे ही छुट्टी मांगी होगी, मिलने पर नाचे होंगे और नहीं मिलने पर उदास हो गये होंगे. सब आपस में पूछ रहे हैं, तुम नहीं गये, जाना चाहिए था न . छठ में गांव नहीं गए तो क्या बचा ? सब कमाय व्यर्थ। हम तो अगले साल पक्का जायेंगे. अभी से सोच लिये हैं. इसलिए कोरोना भी छठ के उल्लास, उत्साह और उमंग के आगे डर नहीं फैला सका।
अगले चार दिन बिहार “छठमाय” रहेगा
आज से बिहार का महापर्व ‘छठ’ शुरू हो गया …. अगले चार दिन बिहार “छठमाय” रहेगा …. पूरे देश से ट्रेन भरभर कर …. हवाई जहाज और प्रीमियम ट्रेन में कई गुणा महंगा टिकट लेकर देश -दुनिया के हर हिस्से से बिहारी …. बिहार पहुंच रहे हैं …
छठ के प्रति इस श्रद्धा को आप सिर्फ एक पर्व या सूर्योपासना नहीं कह सकते …. छठ महापर्व हम बिहारियों की सभ्यता , संस्कृति, भेदभाव विहीन पुरातन परम्परा , प्रकृति के प्रति निष्ठा, आस्था, आराध्य के प्रति समर्पण , पवित्रता एवं स्वच्छता का समागम है … एक ऐसा पर्व जो हमे हमारी मिट्टी से जोड़कर रखता है …. बिलकुल पलायनवाद का दंश झेल रहे बिहारियों को लिए अब एकमात्र छठ ही बचा है जिस बहाने न सिर्फ बिहारी बिहार जाने को लालायित रहते हैं बल्कि गर्व से कहते हैं देखो हमारे बिहार में भेदभाव विहीन एक पर्व होता है जिसमे हम सिर्फ प्रकृति को पूजते हैं और स्वछता के साथ सामाजिक समरसता को प्रगाढ़ करते हैं , वह महापर्व छठ है , , बिहारी अस्मिता का सूचक है ..
“छठ” बिहार की अलौकिक पहचान है
“छठ” बिहार की अलौकिक पहचान है …. एक ऐसा महापर्व जो सर्व बंधनों से तो मुक्त है परंतु विविध सात्विकताओं से युक्त है …. बिहार की वास्तिक परंपरा की पहचान है यह छठ ….. जाति, धर्म, सप्रदाय के तानेबाने से पूर्णतः स्वतंत्र…. सिर्फ अात्मीयता का भाव .. अपनत्व का बोध….
अाज “नहाय खाय” के साथ चारदिवसीय छठ महापर्व अनुष्ठान की शुरुअात हो गई…. भात, चना का दाल, कद्दू का बजका, सब्जी, घी का सात्विक भोजन …. जिसमें सिर्फ शुद्धता का वास है… द्वेषरहित जिस समाज की हम कल्पना करते हैं … उसी साकार सात्विक भोजन के साथ और प्रकृति से जुड़े कृषि उत्पादों वाले पदार्थों के साथ छठ की शुरुआत है….. जहां कोई पुजारी नहीं है , सब बस पूजक हैं… अाम और खास सबको एक सूत्र में पिरोते छठ महापर्व की अनंत शुभकामनाएं
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राजा, रंक, फकीर सब बसिये एक घाट कहां !जहां मने है छठ वहीं बसिये सब एक घाट तहाँ।
गांवों के फिर से बस जाने के त्योहार छठ पर हमारी परेशानी क्यों नहीं दिखती
तस्वीर पिछले साल की है लेकिन इस बरस भी छठ पर बिहार आने वाली ट्रेनों का यही हाल है। करीब 44 घँटे का सफर कर भांजी आई है, बता रही है बेंगलुरु से भागलपुर तक लोग पौदान पर सफर करने को मजबूर थे। दस बारह लोग शौचालय में किसी तरह ठूंसे पड़े हैं। नीचे से लेकर ऊपर की सीट भरी पड़ी है। चलने के रास्ते पर लोग बैठे हैं। आदमी की गोद में आदमी बैठा है। आदमी की गोद में औरत बैठी है और औरत की गोद में बच्चा। बच्चे किसी तरह ट्रेन की बोगी में घुस गए हैं और वे वहीं कहीं घुसिया कर खड़े हैं। कोई शौचालय तक के लिए नहीं उठ सकता। चौदह पंद्रह घंटे हो जाते हैं शौचालय गए। कुछ बच्चे तो वहीं बैठे बैठे बोतल में पेशाब करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। बच्चों की हालत का अंदाज़ा कीजिए और बस एक मिनट के लिए समझ लिए कि आपके बच्चे के साथ ऐसा हुआ हो तब आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी। किसी तरह घुट घुट कर लोग सफर करने के लिए मजबूर किये जा रहे हैं।
हर ट्रेन में ठसमठस भीड़
खैर इन सब के बाद भी छठ ही अब एकमात्र त्योहार बचा है जब बिहार के गांव गुलजार हो जाते हैं। छठ गांवों के फिर से बस जाने का त्योहार है। आप जाकर देखिये गांवों में कहां कहां से लोग आए होते हैं। हिन्दुस्तान का हर हिस्सा बिहार में थोड़े दिनों के लिए पहुंच जाता है। हम बिहारी लोग छठ से लौट कर कुछ दिनों बाद फिर से ख़ाली हो जाते हैं। छठ आता है तो घर जाने के नाम पर ही भरने लगते हैं। हावड़ा हो या दिल्ली, पुणे हो या पुडुचेरी किसी भी स्टेशन से बिहार जाने वाली हर ट्रेन में ठसमठस भीड़ की स्थिति कुछ इसी फोटो की भांति है। जनरल डिब्बे में चढ़ने वाले लोगों को प्लेटफार्म पर कतारबद्ध करके खड़ा किया गया है ताकि भगदड़ न मचे। दोपहर 1 बजे खुलने वाली ट्रेन में बैठने के लिए लोग सुबह 9 – 10 बजे से ही कतारबद्ध हैं। यह हालत सिर्फ एक स्टेशन पर नहीं पूरे भारत में किसी भी शहर में चले जाएं पिछले एक सप्ताह 10 दिनों से बिहार जाने वाली हर ट्रेन का यही हाल है।
अपनी मिट्टी से जोड़कर रखने वाला पर्व
भले छठ पूरब के उजाड़ को अपनी मिट्टी से जोड़कर रखने वाला पर्व हो लेकिन हमारे उजाड़ की वीभत्स तस्वीर हमारे हुक्मरानों को नजर नहीं आती, उस पर जाति और धर्म में बंटा हमारा समाज ऐसे निक्कमे नेताओं को खाद पानी देता है।
कुछ बरस पहले ऐसी ही स्थिति पर रवीश लिखे थे, ये कौन सा भारत है जहां पखाने में लोग बैठकर अपना सबसे पवित्र त्योहार मनाने घर जा रहे हैं। क्या हम इतने क्रूर होते जा रहे हैं कि सरकार, राजनीति और समाज को इन सब तस्वीरों से कोई फर्क नहीं पड़ता। हर राज और हर साल की यह तस्वीर है। राजनीति और सरकार की समझ पर उस खाते पीते मध्यम वर्ग ने अवैध कब्ज़ा कर लिया है जो ट्वीटर और फेसबुक पर खुद ही अपनी तस्वीर खींच कर डालता हुआ अघाए रहता है। जो अपनी सुविधा का इंतज़ाम ख़ुद कर लेता है।
ग़रीबों की कोई सेल्फी कहीं अपलोड नहीं हो रही है
लेकिन रेल आने से घंटों पहले कतार में खड़े उन ग़रीबों की कोई सेल्फी कहीं अपलोड नहीं हो रही है जिनकी आवाज़ अब सिस्टम और मीडिया से दूर कर दी गई है। ये बिहारी नहीं हैं। ये ग़रीब लोग हैं जो छठ मनाने के लिए दिल्ली या देश के अन्य हिस्सों से बिहार जाना चाहते हैं। हर साल जाते हैं और हर साल स्पेशल ट्रेन चलाने के नाम पर इनके साथ जो बर्ताव होता है उसे मीडिया भले न दर्ज करे लेकिन दिलों दिमाग़ में सिस्टम और समाज के प्रति तो छवि बन रही है वो एक दिन ख़तरनाक रूप ले लेगी। साल दर साल इन तस्वीरों के प्रति हमारी उदासीनता बता रही है कि देखने पढ़ने वाला समाज कितना ख़तरनाक हो गया है। वो अब सिर्फ अपने लिए हल्ला करता है, ग़रीबों की दुर्गति देखकर किनारा कर लेता है।
सिस्टम और सरकार से सवाल पूछिये
संवेदनहीन हो चुके सिस्टम और सरकार से सवाल पूछिये कि हमारी यह दुर्गति के लिए आप क्यों नहीं जिम्मेदार हैं? बुलेट ट्रेन से ज्यादा जरूरी बुनियादी सुविधाओं का हर आदमी को लाभ मिलना होना चाहिए। गांव छठ की तरह तभी खिलेंगे जब मानवीय संवेदनाओं को जीवंत रखने की कोशिश की जाएगी। सोचिये जिस खुशी के लिए हम बिहारी इतनी तकलीफदेह यात्राएं करते हैं वह छठ हमारे लिए सिर्फ पर्व नहीं परिवार से, गांव से जुड़े रहने का आख़िरी गर्भनाल है।छठ ही वो मौका है जब लाखों लोग अपने गांव घर को कोसी की तरह दीये और ठेकुए से भर देते हैं। गांव गांव खिल उठता है। इसकी खूबसूरती ने तब ज्यादा निखार आएगा जब हमारे ही लोग इस नारकीय सफर से मुक्त होकर यात्रा करेंगे।
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