लालू यादव का भूत और बिहार का भविष्य
( पत्रकार अरुण साथी के ब्लॉग से साभार)
बिहार चुनाव में जनता में निरुत्साह है। कार्यकर्ता और नेता भी कई जगह ठिसुआल। जातपात का घात जगजाहिर है पर प्रतिघात भी संभावित। बात निरुत्साह की। कारण जो हो पर सच यही। एक कारण बदलाव की संभावना पर विकल्पहीनता। दूसरा नीतीश कुमार से गुस्सा। तीसरा तेजस्वी से संशय, डर। यही सब। शायद।
खास बात यह कि अब लालू प्रसाद का भूत चुनाव में असरदार नहीं दिख रहा। यही बिहार के चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकता है। तेजस्वी और चिराग की सभा में जनसैलाब के भी अलग संकेत दिख रहे हैं। इस चुनाव में युवाओं की नई फौज भी है।
बात यदि मुद्दों की करें तो बेरोजगारी, रेलवे निजीकरण, पिछले सालों में कम जॉब देने इत्यादि मुद्दों को लेकर कंपटीशन की तैयारी करने वाले तथा नौकरी की उम्मीद में फॉर्म भरने वाले युवाओं में गुस्सा है। यह असरदार भी हो सकता है। नियोजित शिक्षकों और अन्य कर्मियों की नाराजगी भी सरकार से जबरदस्त है। शिक्षक बहाली में जिस तरह से पंचायतों में गोल गोल घुमाने और सो दो सो जगह आवेदन देने का नियम सरकार ने बनाया उसे भी युवा काफी गुस्से में है। हालांकि रोजगार मतलब स्वरोजगार भी बताया जा रहा, पर विकल्प नहीं। पलायन बढ़ गया। कोरोना में पैदल घर आना और क्वारंटाईन सेंटर की कुव्यवस्था। राहत राशि का बंदरबाट। शराबबंदी की असफलता। गांव गांव तस्करों का नया गिरोह तैयार होना। सरकार के विरोध में जा सकता है।
सरकार के पक्ष में शुरुआत के 5 सालों के कार्यकाल में किए गए सड़क, पानी, बिजली, अपराध पे लगाम इत्यादि उपलब्धि प्रमुखता से है। अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार पहले कार्यकाल के वनिस्पत तीसरे कार्यकाल में कुछ ज्यादा नहीं रहा। भवन बने परंतु या तो डॉक्टर की कमी रही या डॉक्टर की ड्यूटी पर नहीं होना रहा। सब असफलता है।
नलजल, नाली गली, कुशल युवा से प्रशिक्षण, महिला आरक्षण सकारात्मक है। जाति अपराधियों का बर्चस्व। जातीय नरसंहारों का दौर, नक्सलियों का आतंक, जर्जर सड़कें, अपहरण उद्योग, गायब बिजली, बदहाल अस्पताल, बहुत लोग इसे आज भी नहीं भूले हैं।
साथ थे तो अच्छा अलग हुए तो बुरा
राजनीति बरगलाने की नीति को ही कहते हैं। पिछला वर्ष स्लोगन था झांसे में नहीं आएंगे परंतु इस बार सभी के स्लोगन बदल गए हैं। जैसे कि लालू प्रसाद यादव पिछले सभाओं में बाहुबली अनंत सिंह को लेकर सभी मंचों से हकड रहे थे। बैकवर्ड-फारवर्ड कर दिए। आज वही अनंत सिंह उनकी पार्टी से उम्मीदवार है। पिछली चुनाव में नीतीश जी लालू जी से साथ चुनाव में थे, सरकार बनी, इस चुनाव वही लालू प्रसाद फिर से खलनायक हो गए। पिछले चुनाव में सभी जगह लालू प्रसाद दिखाई देते थे। इस बार पार्टी के चुनावी पोस्टर से भी गायब है। पिछले चुनाव में अगड़ा पिछड़ा में विभेद की बात होती थी इस चुनाव में तेजस्वी यादव सवर्ण को साथ लेकर चलने की बात सभी मंच से कर रहे हैं। हालांकि टिकट नहीं ही दिया। (खास के भूमिहार को)। पिछले चुनाव में कोई सेंधमारी नहीं थी। इस बार जदयू के खजाने में लोजपा की सेंधमारी है। पिछले चुनाव में गठबंधन क्लियर कट था। इस बार गठबंधन में गांठ है। भाजपा-लोजपा, लोजपा-भाजपा, यह स्लोगन जमकर चल रहा है। सवर्ण के बीच बहस में तेजस्वी है। दो लोग जंगल राज कहता है तो एक उसे बीती बात। अतिपिछड़ा वोट बैंक नीतीश जी का आधार।
लोकतंत्र में सब कुछ संभावित होता है। निश्चित कुछ भी नहीं है। बिहार के चुनाव में विपक्ष ने कन्हैया कुमार का जानबूझकर इस्तेमाल नहीं किया। अगर किया जाता तो और बेहतर होता। चिराग पासवान, तेजस्वी यादव युवा विकल्प बिहार में दिखने लगे बाकी सब चुनाव के बाद दिखेगा। आशुतोष, पुष्पम प्रिया बिहार की राजनीति में नवांकुर है। समय लगेगा। हल्का हल्का ही सही। भय और संशय के बीच इस बात बिहार में जातीय विभेद का गांठ खुल रहा है। बाकी सब चुनाव परिणाम तय करेगा।
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